शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

छत पर

छत पर हमें खड़े थे,
आबो हवा भर रहे थे,
कोहनियाँ टेके हुए,
सहारा दीवार का लिए हुए,

सामने की सीडियों पर,
जल्दी-जल्दी चलता कोई ऊपर आया,
हाथ में कुछ खाने की चीज़ थी,
खाता-खाता ऊपर आया,

हम निहारते रहे, गौर से देखते रहे,
पहचानने की पुरजोर कोशिश करते रहे,
न तो यह इस घर में दिखी थी कभी,
शायद मेहमान बन कर आयी थी अभी,

उसे भी खुला आसमान अच्छा लगा रहा था,
उसे मुझे अनदेखा कर देखा था,
नीचे से आवाज़ आयी, मेरा मन जाने को न था,
धीरे-धीरे ताकते-ताकते, में नीचे उतरा था,


.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें