शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

है साहिल

है साहिल पे बैठा,
लहरों को देखता हूँ,
हवा चलती है,
नमी पानी ले लेता हूँ,

अहसास यह फिजा का,
बहुत देर तक रहता नहीं,
साहिल से जब उठा,
ये भी पास आता नहीं,

अब शुष्क हवा,
चुभती देह में,
झुलसा जाती,
सोख पानी जाती,

कैसे-कैसे दिन बीते,
रात है फिर आती,
सारी-सारी जिन्दगी बीती,
ऋतुएं तो हैं आती-जाती,


.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें