मंगलवार, 13 सितंबर 2011

बाज़ार में


बाज़ार में चिल्ला-चिल्ला कर, यूँ न बेच अपने जख्मों को,
हिस्सा किसी और का भी है, तेरे इन नगमों में,

क्या रूह न दुखती होगी उसकी,
जो तुने उसे सरे बाज़ार बेच दिया,
अपने उन पलों का सौदा जो तुने कर दिया,

गर न होती मोहब्बत,
न यूँ तू शायर बनता,
रह जाता यूँ ही जीता,
रोज़ गम को न पीता,

उसका भी तो कुछ सोच,
जो दिल पर रख पत्थर,
तेरे आसुओं में लाश-सी बनी,
तेरी यादों में बाहों में किसी की डली,

यूँ न गम दे उसे,
न सता यूँ अब उसे,
प्यार किया है उसे,
न ज़माने को बता उसे,

तुझे तेरी शायरी की,
दाद तो मिल जायेगी,
पर जमाना जब जान जाएगा,
वो शर्म-ओ-हया से मर जायेगी,

भले तू तखल्लुस रखता है,
न चेहरा तेरा दीखता है,
न आवाज़ तेरी आती है,
बस तू किताब लिखता है,

पर ये कौन-सा इन्साफ है,
अपनी मोहब्बत को बेचकर,
सरे बाज़ार बदनाम करता है,
और इनाम का हक़दार बनता है,

.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें