बुधवार, 14 सितंबर 2011

कुछ खिड़की

कुछ खिड़की से वो देख रही थी,
कुछ खिड़की से मैं देख रहा था,
कुछ वो सज सवंर रही थी,
कुछ में चाय पी रहा था,

इतने में उसकी नज़र पड़ी,
झट से हुई वो खड़ी,
न आव देखा न ताव देखा,
खिड़की को फटाक से बंद कर देखा,

मैं मायुश सा हुआ,
हल्की मुस्कान-सा लिए,
बैठ गया वही,
दिल अपना-सा लिए,

कुछ दिन बाद, फिर वही बात हुयी,
खिड़की खुली उसकी, मुलाकात हुयी,
मैंने नज़रें फेर लीं अब,
खिड़की अन्दर मोड़ ली अब,

अब खिड़की मेरी बंद रहती थी,
खुली अब उसकी रोज़ रहती थी,
मैं देखता था, ऊपर के कांच से,
वो झांकती थी, खिड़की की दारंच से,

एक दिन नीचे उतर रहा था,
बहन सामने से आ रही थी,
उसके पीछे वो भी आ रही थी,
 थोड़ी आँख मिली, सर नीच कर रहा था,

शाम का वक्त था,
अब वो रोज़ आने लगी,
बहन से याराना बनाने लगी,
पता नहीं दिल में उसके क्या था,


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