मंगलवार, 25 जनवरी 2011

क्यूँ याद

क्यूँ याद किसी की दिलाते हो,
जिंदगी को ग़मों से रुलाते हो,
मोहब्बत हमने भी की हो,
क्यूँ रूह हमारी जलाते हो,

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हवाएं कुछ

हवाएं कुछ यूँ से चल रहीं हैं,
घाटियाँ कुछ यूँ महक रहीं हैं,
चिड़ियाँ कुछ यूँ चहक रही हैं,
कामनाएं कुछ यूँ बहक रही हैं,

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ये जगह

ये जगह,
इतनी,
खुबसूरत न थी,
जितनी,
तुम्हारे,
आने से हो गई,

तुम्हारी,
खूबसूरती,
इस पर,
छा गई,
जिससे तुम,
दिल में,
समा गई,

चाहे,
मुलाकात,
हो की,
ना हो,
पर ख्यालों में,
तुम ही,
छा गई,

इसी तरह,
तुम्हे,
निहारते हुए,
तुम हमें,
भा गई,

.

यह नज़रें

यह नज़रें हैं,
यह दिल है,
यह दिल की,
उल्फत है,

काबू में,

न रहीं,
किसी के,
हमारी क्या,
जुल्फत है,

.

ये नज़रों

ये नज़रों के तीर किसे,
नजराने में पेश कर रही हो,
हमें लगा तुम हमें,

बस हमें देख रही हो,

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यह जुल्फें

यह जुल्फें,
यह आँखें,
यह मुस्कराहट,
यह खिला-खिला चेहरा,

यह नाजों नक्श,

जो देख ले,
एक बार,
वह हो जाये तुम्हारा,

.

यह मासूम

यह मासूम निगाहें,
यह कातिल अदा,
यह लहराती जुल्फें,
यह कपकपाते होंठ,

Yah Masoom Nigaahen,
Yah Kaatil Ada,
Yah Lahraati Zulfen,
Yah Kamkapaate Honth,


یہ معصوم نگاہیں،
یہ کاتیل ادا،
یہ لہراتی زلفیں،
یہ کمپکپاتے ہونٹھ،


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क्यूँ इतना

क्यूँ इतना सताती हो, सब पर जुल्म ढाती हो,
खुबसूरत हो इतनी, फिर क्यूँ इतना सवंकर आती हो,
क्यूँ इतना लजाती हो, होश सबके उड़ाती हो,
मासूम हो इतनी, फिर क्यूँ इतना नजाकत दिखाती हो,

Kyun Itna Sataati Ho, Sab Par Julm Dhaati Ho,
Khoobsoorat Ho Itni, Fir Kyun Itna Sawarkar Aati Ho,
Kyun Itna Lazaati Ho, Hosh Sabke Udaati Ho,
Masoom Ho Itni, Fir Kyun Itna Nazaakat Dikhaati Ho,

کیوں ستاتی ہو، سب پر جوعلم دھاتی ہو،
خوبصورت ہو اتنی، کیوں اتنا سوارکر آتی ہو،
کیوں اتنا لذاتی ہو، ہوش سبکے ادتی ہو،
معصوم ہو اتنی، فر کیوں اتنا نزاکت دکھاتی ہو

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ये मासूमियत

ये मासूमियत ये नजाकत,
ये नज़र ये इनायत,|


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हुस्न का जलवा

हुस्न का जलवा, तुमने बिखेरा है,
याद नहीं कहाँ, अपना बसेरा है,
अब डालें कहाँ, अपना डेरा है,
तुम्हारे दिल में अब बसेरा है,


Husn Ka Jalwa, Tumne Bikhera Hai,
Yaad Naheen Kahaan, Apna Basera Hai,
Ab Daalen Kahaan, Apna Dera Hai,
Tumhare Dil Mein Ab Basera Hai,

حسن کا جلوہ ، تھمنے بکھیرا ہے،
یاد نہیں کہاں اپنا بصرہ ہے،
اب اب ڈالیں کہاں ، اپنا درہ ہے،
تمہارے دل میں اب بصرہ ہے


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तुम्हारी मुस्कान

तुम्हारी मुस्कान,
तुम्हारी नज़र,


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ये लहराती

ये लहराती जुल्फें,
ये खिलखिलाती हंसी,
ये मस्मस्त निगाहें,
ये अल्हड हंसी,


Ye Lahraati Julfen,
Ye Khilkhilaati Hansi,
Ye Madmast Nigahen,
Ye Alhad Hansi,


یہ لہراتی زلفیں،
یہ کھلکھلاتی ہنسی،
یہ مدماست نگاہیں،
یہ الہد ہنسی،


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यह तन्हाईयाँ

यह तन्हाईयाँ यह यादों में किसी की खोई हूँ |
जागी न सोई हूँ बस यादों में किसी की खोई हूँ ||


Yah Tanhaayiyaan, Yaa Yadon Mein Kisi Ki Khoi Hoon,
Jaagi Na Soi Hoon, Bas Yaadon Mein Kisi Ki Khoi Hoon,
 

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उफ़ ये अदा

उफ़ ये अदा, हो गए जिस पर फ़िदा,
न रहा गुमान, न रहा इमान,
ये जुल्फें ये नजरें ये होंठ ये अदा,
ये चेहरा या खुदा या खुदा या खुदा,




اف یہ ادا، ہو گئے جس پر فدا،
نہ رہا گمان ، نہ رہا امان،
یہ زلفیں، یہ نظریں ، یہ ہونٹھ، یہ ادا،
یہ چہرہ، یا خدا، یا خدا، یا خدا،
 

Uf Ye Ada, Ho Gaye Jis Par Fida,
Na Raha Guman, Na Raha Imaan,
Ye Julfen, Ye Nazren, Ye Honth, Ye Ada,
Ye Chehra, Yaa Khuda, Yaa Khuda, Yaa Khuda,



दृढ़ता कि दीवार

दृढ़ता कि दीवार हो तुम,
दर्पण का दर्प हो तुम,
अहंकार का अहम् हो तुम,
भारत का अभिमान हो तुम,



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शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

INDRA - इन्द्र

इन्द्र

इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म मे सभी देवताओं के राजा माने जाते हैं । वैदिक काल में इन्द्र सबसे ऊँचे देव थे, पर बाद में पौराणिक करानियों में उनका स्तर बहुत कम कर दिया गया ।
ऋग्वेद में इन्द्र: ॠग्वेद के प्राय: 250 सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है तथा 50 सूक्त ऐसे हैं जिनमें दूसरे देवों के साथ इन्द्र का वर्णन है। इस प्रकार लगभग ऋग्वेद के चतुर्थांश में इन्द्र का वर्णन पाया जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्द्र वैदिक युग का सर्वप्रिय देवता था। इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ अस्पष्ट है। अधिकांश विद्वानों की सम्मति में इन्द्र झंझावात का देवता है। जो बादलों में गर्जन एवं बिजली की चमक उत्पन्न करता है। किन्तु हिलब्रैण्ट के मत से इन्द्र सूर्य देवता है। वैदिक भारतीयों ने इन्द्र को एक प्रबल भौतिक शक्ति माना जो उनकी सैनिक विजय एवं साम्राज्यवादी विचारों का प्रतीक है। प्रकृति का कोई भी उपादान इतना शक्तिशाली नहीं जितना विद्युत-प्रहार। इन्द्र को अग्निदेव का जुड़वाँ भाई कहा गया है जिससे विद्युतीय अग्नि एवं यज्ञवेदीय अग्नि का सामीप्य प्रकट होता है।
परिचय: इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है।
  • अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूँद जल नहीं बरसाते। इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है। ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रैण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है।
  • हिलब्रैण्ट ने सूर्य रूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए कहा है: वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्ति केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है। वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हुई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है।
  • ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करने वाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है।
  • ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।
इन्द्र की शक्तियां: इन्द्र के युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया। इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं। चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।
इन्द्र और वरुण: नौ सूक्तों में इन्द्र एवं वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं। युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एव उन्नति देना, दुष्टों के विरूद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है। किन्तु यह समानता उनके सृष्टि विषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छ: अन्तर है:
1. वरुण राजा है. 2. असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओ का पालन देवगण करते हैं. 3. जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है। 4. इन्द्र वज्र से वृत्र का वध करता है, जबकि वरुण साधु (विनम्र) है और वह सन्धि की रक्षा करता है। 5. वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरूतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है। 6. इन्द्र शत्रुतावश वृत्र का वध करता है, जब कि वरुण अपने व्रतों की रक्षा करता है।
पौराणिक मत: पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है। पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु और शिव का महत्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है। वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है, सुधर्मा उसकी राजसभा तथा सहस्त्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है। शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्र अथवा अशनि है। जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड़ जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्राय: तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता हुआ पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं। पौराणिक इन्द्र शक्तिमान, समृद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है।
कथा: एक बार अनावृष्टि के कारण अकाल पड़ा। ऋषिगण जीवित थे, तथा तपस्यारत थे। उन्हें निश्चिंत देखकर इन्द्र वहां पर प्रकट हुए और उनसे पूछने लगे कि वे किस प्रकार जीवित है? ऋषिगण बोले-'मात्र वृष्टि ही मनुष्य के जीवन का साधन नहीं है। प्रकृति हर स्थिति और ऋतु के अनुकूल मनुष्य के जीवित रहने का प्रबंध कर देती है। उदाहरण के लिए मरूभूमि में भी कुछ न कुछ खाद्य उपलब्ध होता ही है तथापि अनावृष्टि कष्टकर अवश्य रहती है।' ऋषिगण पुन: तप रत हो गये।
प्रजापति की उक्ति थी कि पापरहित, जराशून्य, मृत्यु-शोक आदि विकारों से रहित आत्मा को जो कोई जान लेता है, वह संपूर्ण लोक तथा सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। प्रजापति की उक्ति सुनकर देवता तथा असुर दोनों ही उस आत्मा को जानने के लिए उत्सुक हो उठे, अत: देवताओं के राजा इन्द्र तथा असुरों के राजा विरोचन परस्पर ईर्ष्याभाव के साथ हाथों में समिधाएं लेकर प्रजापति के पास पहुंचे। दोनों ने बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन किया, तदुपरांत प्रजापति ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उनकी जिज्ञासा जानकर प्रजापति ने उन्हें जल से आपूरित सकोरे में देखने के लिए कहा और कहा कि वही आत्मा है। दोनों सकोरों में अपना-अपना प्रतिबिंब देखकर, संतुष्ट होकर चल पड़े। प्रजापति ने सोचा कि देव हों या असुर, आत्मा का साक्षात्कार किये बिना उसका पराभव होगा। विरोचन संतुष्ट मन से असुरों के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि आत्मा (देह) ही पूजनीय है। उसकी परिचर्या करके मनुष्य दोनों लोक प्राप्त कर लेता है।
देवताओं के पास पहुंचने से पूर्व ही इन्द्र ने सोचा कि सकोरे में आभूषण पहनकर सज्जित रूप दिखता है, खंडित देह का खंडित रूप, अंधे का अंधा रूप, फिर यह अजर-अमर आत्मा कैसे हुई? वे पुन: प्रजापति के पास पहुंचे। प्रजापति ने इन्द्र को पुन: बत्तीस वर्ष अपने पास रखा तदुपरांत बताया-'जो स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है, वही आत्मा, अमृत, अभय तथा ब्रह्म हैं।' इन्द्र पुन: शंका लेकर प्रजापति की सेवा में प्रस्तुत हुए। इस प्रकार तीन बार बत्तीस-बत्तीस वर्ष तक तथा एक बार पांच वर्ष तक (कुल 101 वर्ष तक) इन्द्र को ब्रह्मचर्य रखकर प्रजापति ने उन्हें आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान इन शब्दों में करवाया-
  • यह आत्मा स्वरूप स्थित होने पर अविद्याकृत देह तथा इन्द्रियां मन से युक्त हैं। सर्वात्मभाव की प्राप्ति के उपरांत वह आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है। आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य कर्तव्य-कर्म करता हुआ अपनी आयु की समाप्ति कर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और फिर नहीं लौटता।
रामायण में इन्द्र: देवताओं का राजा इन्द्र कहलाता था। उसे मेषवृषण भी कहते हैं। राम-रावण युद्ध देखकर किन्नरों ने कहा कि यह युद्ध समान नहीं है क्योंकि रावण के पास तो रथ है और राम पैदल हैं। अत: इन्द्र ने अपना रथ राम के लिए भेजा, जिसमें इन्द्र का कवच, बड़ा धनुष, बाण तथा शक्ति भी थे। विनीत भाव से हाथ जोड़कर मातलि ने रामचंद्र से कहा कि वे रथादि वस्तुओं को ग्रहण करें। युद्ध-समाप्ति के बाद राम ने मातलि को आज्ञा दी कि वह इन्द्र का रथ आदि लौटाकर ले जाय. रामायण में ये वर्णित है की इन्द्र राम के पिता दशरथ के मित्र थे.
दुर्वासा ऋषि का श्राप: एक बार इन्द्र मदिरापान कर उन्मत्त हो गये। वे एकांत में रंभा के साथ क्रीड़ा कर रहे थे, तभी दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों के साथ उनके यहां पहुंचे। इन्द्र ने अतिथिसत्कार किया। दुर्वासा ने आशीर्वाद के साथ एक पारिजात पुष्प इन्द्र को दिया। वह पुष्प विष्णु से उपलब्ध हुआ था। इन्द्र को ऐश्वर्य का इतना मद था कि उन्होंने वह पुष्प अपने हाथी के मस्तक पर रख दिया। पुष्प के प्रभाव से हाथी अलौकिक गरिमायुक्त होकर जंगल में चला गया। इन्द्र उसे संभालने में असमर्थ रहे। दुर्वासा ने उन्हें श्रीहीन होने का श्राप दिया। अमरावती भी अत्यंत भ्रष्ट हो चली। इन्द्र पहले बृहस्पति की और फिर ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। समस्त देवता विष्णु के पास गये। उन्होंने लक्ष्मी को सागर-पुत्री होने की आज्ञा दी। अत: लक्ष्मी सागर में चली गयी। विष्णु ने लक्ष्मी के परित्याग की विभिन्न स्थितियों का वर्णन करके उन्हें सागर-मंथन करने का आदेश दिया। मंथन से जो अनेक रत्न निकले, उनमें लक्ष्मी भी थी। लक्ष्मी ने नारायण को वरमाला देकर प्रसन्न किया।
सहस्त्रार नामक राजा की पत्नी मानस सुंदरी जब गर्भवती हुई तो उदास रहने लगी। राजा के पूछने पर उसने बताया कि इन्द्र का वैभव देखने की उसकी उत्कट अभिलाषा थी। राजा ने उसे तुरंत इन्द्र की ऋद्धि के दर्शन कराये। फलस्वरूप उसकी कोख से जिस बालक ने जन्म लिया उसका नाम इन्द्र ही रखा गया। वानरेंद्र इन्द्र के वैभव के विषय में सुनकर लंका के अधिपति माली ने अपने छोटे भाई सुमाली के साथ इन्द्र पर आक्रमण किया। अनेक सैनिकों के साथ माली मारा गया। सुमाली ने भागकर पाताल लंकापूरी में प्रवेश किया। तदनंतर इन्द्र वास्तव में 'इन्द्रवत' हो गया।




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