गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

दूर अक्नायितों से

दूर अक्नायितों से,
आवाज़-सी आती है,
कोई निगाह,
बार-बार,
देख-सी जाती है,

मन ही मन में,
सोचता हूँ,
यह हूर कौन हैं,
जो तक-सी जाती है,

क्यूँ मुझे,
देख जाती है,
देखकर,
अनदेखा,
कर जाती है,

रोज़-रोज़,
इसी तरह,
छत पर,
चली आती है,

बैठा हूँ,
अपनी किताबें लेकर,
अब कोई,
बहाना लेकर,

सोच उसी के,
बारे में,
रहा हूँ,
समझ न,
पा रहा हूँ,

रोज़-रोज़,
मैं भी,
छत पर,
चला आता हूँ,

इक रोज़,
वो न आयी,
बड़ी देर,
नज़र बैठाई,

सीडियों पर,
आवाज़ आयी,
झट से निगाह,
किताब में,
गड़ाई,

बहिन है,
मेरी आयी,
साथ उसके,
वो भी आयी,

मेरी तो हवा,
निकल आयी,
क्या शिकायत,
लेकर आयी,

फिर कभी वो,
छत पे न आयी,
आज तक है,
आस लगाई,

बात बाद में,
पता चलाई,
उसकी तो,
हो गयी सगाई,

यहाँ तो बस,
घूमने है आयी,
वो हो गयी,
अब परायी,

हाय वो लम्हा,
कभी-कभी जिन्दगी भर सताता है,
जब सामने से मोहब्बत आती है,
पर इश्क इतराता है,

हिम्मत गर उस वक्त कर जाता,
उसे इस वक्त अपने पास पाता,

.

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