शनिवार, 20 अगस्त 2011

तुमसे बिछड़कर

तुमसे बिछड़कर, जिन्दगी को जीना, अजीब-सा लगता है |
जिन्दगी का हर कोना, खाली-खाली सुनसान-सा लगता है |

पता नहीं, क्यूँ दिन में भी वीरानगी-सी लगती है |
पता नहीं, क्यूँ रात में भी महफ़िल-सी सजती है |

चन्द शेर निकल आते हैं, गम से डुबे हुए |
अपने को ही सुना लेते हैं, तुम में डुबे हुए |

यूँ ही गलियाँ नापते हैं, यूँ ही सड़कें नापते हैं |
कहीं किसी पुलिया पर, अपने में ही झांकते हैं |

चेहरा सामने होता है, दिमाग ठण्डा होता है |
आखें तुम्हें देखती हैं, पलकें न अब झेप्ति हैं |

रोज़ का किस्सा यही होता है |
जमाना मुझ पर हँसता है |
मेरा अपना मुझपर रोता है |
क्यूँ जिन्दगी यूँ खोता है |

क्या करें, अब तुझे, यूँ भुलाया नहीं जाता |
किसी और को तेरी जगह लाया नहीं जाता |

अब तो गम छिपा लेते हैं, ज़माने के काम हम भी आ लेते हैं |
चेहरे से सारे दिन हँसते रहें, रात को दिल खोलकर रो लेते हैं |

क्यूँ जाहिर करें, अपने गम जिन्दगी के |
बहाने ढूढते हैं, ज़माने को खुश करने के |

तुमसे बिछड़कर, जिन्दगी को जीना, अजीब-सा लगता है |
जिन्दगी का हर कोना, खाली-खाली सुनसान-सा लगता है |

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